लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फरवरी
मेरी माँ ने मुझे एक भाषा सिखायी थी, माँ की निजी भाषा! वही भाषा सीखते-सीखते मैं सयानी हुई, वही सीखते-सीखते इन्सान बनी। चूँकि मेरे पास मेरी भाषा थी इसलिए मैं अपनी भूख-प्यास, इच्छा, कामनाएँ जाहिर कर पाती थी। मेरी जुबान से निकला था-'मैं अपना प्राप्य हासिल करना चाहती हूँ।' चूँकि मेरे पास भाषा थी, मैंने गीत गाया; दीवारों पर प्रतिवाद लिखा, व्यक्तिगत पर्यों में! मेरा व्यक्तिगत कुछ भी व्यक्तिगत नहीं रहा। समूचे देश में आग बनकर बिखर गया। अपनी इसी भाषा ने ही मुझे दिनोंदिन कितने अद्भुत तरीके से शक्तिशाली बना दिया। अब थप्पड़-तमाचे खाकर भी, जुबान से 'चूं' आवाज न निकालनेवाली मैं, मैं नहीं रही। अब मैं रेललाइन की घुप्ची-सी कोठरी में कुलांचे भरनेवाली, पूरी शाम भर 'गोल्लाछूट' खेलनेवाली 'मैं' नहीं रही। अब मैं घर की छत पर रातों को अकेली-अकेली, तारे गिनने वाली 'मैं' नहीं थी। उन दिनों हज़ारों-हज़ार लोगों की भीड़ में चलती रहती थी, उन दिनों मैं सारे भेद-भाव तोड़ने लगी थी। उन दिनों मैं अनगिनत विषवृक्ष उखाड़ने लगी थी। उन दिनों मैं चीख-चीख कर सिर्फ अपने लिये नहीं, करोड़ों जीवों के प्राप्य की माँग कर रही थी! मेरी चीत्कार ने लोगों को इस कदर विक्षुब्ध कर दिया कि सबने मेरी गर्दन दबोच ली। वे लोग मेरी भाषा छीन लेने को आमादा हो गये।
उन लोगों ने मेरे हाथ से कलम तो छीन ही ली, अब भाषा छीन लेने को आतुर थे। उन लोगों ने शहर-नगर गाँव-गंज में किताबें जलाने का उत्सव आयोजित किया। उन लोगों ने मेरी भाषा छीन लेने की कोशिश की। उन लोगों ने मुझे जला डाला। लेकिन जल कर मैं खाक़ नहीं हुई, फ़ौलाद बन गयी। जो शक्ति मेरी माँ ने मुझमें भरी थी, वे लोग छीन लेना चाहते थे। किसी की अन्तस की गहराइयों में अगर कुछ सच ही मौजूद हो, तो क्या उसे कोई छीन सकता है? कोई क्या उस तरह दोनों हाथ के नाखूनों से. दाँतों से कछ नोच सकता है? क्या प्यार छीन सकता है? भाषा? भाषा तो खन में घली-मिली होती है। खून में से क्या कोई भाषा के कण कुरेदकर निकाल सकता है?
मुझे निर्वासन दण्ड मिला। और कोई नहीं, कोई स्वजन नहीं, कोई बन्धु नहीं, सिर्फ भाषा मेरे साथ रही। मैं और मेरी भाषा! अकेले हम दोनों! भिन्न भाषा-भाषियों की भीड़ में हम दोनों! निभृत-एकान्त में हम दोनों मन ही मन बोलते-बतियाते थे। सारी-सारी रात बिना सोये हम दोनों एक-दूसरे से बातें करते रहते थे। भिन्न भाषा का हल्का-सा आघात भी मैंने अपनी भाषा को नहीं सहने दिया। भिन्न भाषाओं के रोंएदार पैरों तले मैंने अपनी भाषा को पिसने-कुचलने भी नहीं दिया। मैं अपनी निरीह-निर्जन भाषा को सँजोये रखती थी, मैं उसे अपनी आँखों-आँखों में रखती थी, बड़े प्यार से रखती थी। भाषा के बदन पर चढ़ी धूल-मैल मैं अपने आँसुओं से धो देती थी। मैं अपनी भाषा को माँ जैसी ममता से रखती थी, भाई-बहन जैसी प्रीति देती रही। वह भाषा दीर्घ समय तक, एक युग तक निर्वासन में रही। वह भाषा बर्फ की पतों तले दबी रही, एक युग तक अन्धेरे में घुटती रही। भाषा युगों तक मेरे उच्चारण, मेरे श्रवण, मेरे हृदय में बसी रही। मेरी भाषा चारों तरफ की हलचल से बेगानी, एक कोने में अकेली-अकेली, मेरी ही तरह, एक युग तक पड़ी रही।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
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- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
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- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं